मेरे ग़ुबार की ये तअ'ल्ली तो देखिए
इतना बढ़ा कि अर्श-ए-मुअल्ला से मिल गया
Habib Jalib
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ज़ुल्फ़ को क्यूँ जकड़ के बाँधा है
रुख़ किसी का नज़र नहीं आता
किसी के कम हैं किसी के बहुत मगर ज़ाहिद
फ़ना के बा'द इस दुनिया में कुछ बाक़ी नहीं रहता
मेरे अरमाँ वो सुधारे यूँ के यूंहीं रह गए
कोई ले ले तो दिल देने को मैं तय्यार बैठा हूँ
मसीहा जा रहा है दौड़ कर आवाज़ दो 'मुज़्तर'
रह के पर्दे में रुख़-ए-पुर-नूर की बातें न कर
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
उन्हों ने क्या न किया और क्या नहीं करते
तुम अगर चाहो तो मिट्टी से अभी पैदा हों फूल
आँखें न चुराओ दिल में रह कर