ज़ुल्फ़ को क्यूँ जकड़ के बाँधा है
उस ने बोसा लिया था गाल का क्या
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उठे उठ कर चले चल कर थमे थम कर कहा होगा
कोई अच्छा नज़र आ जाए तो इक बात भी है
किसी के संग-ए-दर से अपनी मय्यत ले के उट्ठेंगे
वो कहते हैं ये सारी बेवफ़ाई है मोहब्बत की
ऐ हिना रंग-ए-मोहब्बत तो है मुझ में भी निहाँ
दम-ए-आख़िर मुसीबत काट दो बहर-ए-ख़ुदा मेरी
फूंके देता है किसी का सोज़-ए-पिन्हानी मुझे
मुख़ालिफ़ है सबा-ए-नामा-बर कुछ और कहती है
ऐश के रंग मलालों से दबे जाते हैं
सूरत तो एक ही थी दो घर हुए तो क्या है
तुम्हारी जल्वा-गाह-ए-नाज़ में अंधेर ही कब था
दूर क्यूँ जाऊँ यहीं जल्वा-नुमा बैठा है