ज़ुल्फ़ का हाल तक कभी न सुना
क्यूँ परेशाँ मिरा दिमाग़ हुआ
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बुतों में नूर-ए-ज़ात-ए-किब्रिया मालूम होता है
जुदाई मुझ को मारे डालती है
कहीं जो बुलबुल ने देख पाया तो मेरी उस की नहीं बनेगी
पर्दे वाले भी कहीं आते हैं घर से बाहर
जान देना नहीं किसे मंज़ूर
ये नक़्शा है कि मुँह तकने लगा है मुद्दआ' मेरा
कुछ न पूछो कि क्यूँ गया काबे
दिल काम का नहीं तो न लो जान नज़्र है
मेरी हस्ती से तो अच्छी हैं हवाएँ यारब
ये पैदा होते ही रोना सरीहन बद-शुगूनी है
रंज-ए-ग़ुर्बत में देख कर मुझ को
आह-ए-रसा ख़ुदा के लिए देख-भाल के