कुछ न पूछो कि क्यूँ गया काबे
उन बुतों को सलाम करना था
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कैसे दिल लगता हरम में दौर-ए-पैमाना न था
ईसा से दवा-ए-मरज़-ए-इश्क़ न होगी
उड़ा कर ख़ाक हम काबे जो पहुँचे
अपनी महफ़िल में रक़ीबों को बुलाया उस ने
ज़ुल्फ़ को क्यूँ जकड़ के बाँधा है
काबे में हम ने जा के कुछ और हाल देखा
साक़ी वो ख़ास तौर की ता'लीम दे मुझे
हस्ती-ए-ग़ैर का सज्दा है मोहब्बत में गुनाह
हम से अच्छा नहीं मिलने का अगर तुम चाहो
उन्हीं लोगों की बदौलत ये हसीं अच्छे हैं
ग़ुरूर-ए-उल्फ़त की तर्ज़-ए-नाज़िश अजब करिश्मे दिखा रही है
जिए जाते हैं पस्ती में तिरे सारे जहाँ वाले