हस्ती-ए-ग़ैर का सज्दा है मोहब्बत में गुनाह
आप ही अपनी परस्तिश के सज़ा-वार हैं हम
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तुम अगर चाहो तो मिट्टी से अभी पैदा हों फूल
ज़ाहिद तो बख़्शे जाएँ गुनहगार मुँह तकें
ज़बाँ क़ासिद की 'मुज़्तर' काट ली जब उन को ख़त भेजा
जब कहा मैं ने कि मर मर के बचे हिज्र में हम
यूँ कहीं डूब के मर जाऊँ तो अच्छा है मगर
मेरा दिल-ए-'मुज़्तर' बुत-ए-काफ़िर से लगा है
सदमा बुत-ए-काफ़िर की मोहब्बत का न पूछो
रवाँ रहता है किस की मौज में दिन रात तू पानी
दुआ से कुछ न हुआ इल्तिजा से कुछ न हुआ
कुछ न पूछो कि क्यूँ गया काबे
दम-ए-आख़िर मुसीबत काट दो बहर-ए-ख़ुदा मेरी
पड़ा हूँ इस तरह उस दर पे 'मुज़्तर'