हसरतों को कोई कहाँ रक्खे
दिल के अंदर क़याम है तेरा
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तुम्हारी जल्वा-गाह-ए-नाज़ में अंधेर ही कब था
हज़ारों हुस्न वाले इस ज़मीं में दफ़न हैं 'मुज़्तर'
उन्हीं लोगों की बदौलत ये हसीं अच्छे हैं
ये पैदा होते ही रोना सरीहन बद-शुगूनी है
इस से पहले मैं कभी आबाद घर बस्ती में था
गवाह-ए-वस्ल-ए-अदू सर झुका के देख न लो
देख कर काबे को ख़ाली में ये कह कर आ गया
मोहब्बत कर के लाखों रंज झेले बेकली पाई
ग़ुरूर-ए-उल्फ़त की तर्ज़-ए-नाज़िश अजब करिश्मे दिखा रही है
हम से अच्छा नहीं मिलने का अगर तुम चाहो
तू मुझे किस के बनाने को मिटा बैठा है
क्या असर ख़ाक था मजनूँ के फटे कपड़ों में