हज़ारों हुस्न वाले इस ज़मीं में दफ़न हैं 'मुज़्तर'
क़यामत होगी जब ये सब के सब मदफ़न से निकलेंगे
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सुनोगे हाल जो मेरा तो दाद क्या दोगे
दिल का मोआ'मला जो सुपुर्द-ए-नज़र हुआ
मुसीबत और लम्बी ज़िंदगानी
जब कहा तीर तिरी आँख ने अक्सर मारा
ऐ हिना रंग-ए-मोहब्बत तो है मुझ में भी निहाँ
दिल को मैं अपने पास क्यूँ रक्खूँ
असीर-ए-पंजा-ए-अहद-ए-शबाब कर के मुझे
उन्हों ने क्या न किया और क्या नहीं करते
जफ़ा से वफ़ा मुस्तरद हो गई
कह दो साक़ी से कि प्यासा न निकाले मुझ को
वो गले से लिपट के सोते हैं
ज़ुल्फ़ का हाल तक कभी न सुना