वो गले से लिपट के सोते हैं
आज-कल गर्मियाँ हैं जाड़ों में
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मेरे अश्कों की रवानी को रवानी तो कहो
कह दो साक़ी से कि प्यासा न निकाले मुझ को
तरीक़ याद है पहले से दिल लगाने का
वहाँ जा कर किए हैं मैं ने सज्दे अपनी हस्ती को
हौसला इम्तिहान से निकला
जान देना नहीं किसे मंज़ूर
चूकी नज़र जो ज़ाहिद-ए-ख़ाना-ख़राब की
एक हम हैं कि जहाँ जाएँ बुरे कहलाएँ
साक़ी वो ख़ास तौर की ता'लीम दे मुझे
फ़ना के बा'द इस दुनिया में कुछ बाक़ी नहीं रहता
तुम क्यूँ शब-ए-जुदाई पर्दे में छुप गए हो
हम उम्र के साथ हैं सफ़र में