कह दो साक़ी से कि प्यासा न निकाले मुझ को
उम्र-भर रोएँगे मिट्टी के पियाले मुझ को
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जान देना नहीं किसे मंज़ूर
मोहब्बत में किसी ने सर पटकने का सबब पूछा
उम्र सब ज़ौक़-ए-तमाशा में गुज़ारी लेकिन
आइना देख कर ग़ुरूर फ़ुज़ूल
उस का भी एक वक़्त है आने दो मौत को
चाहत की नज़र आप से डाली भी गई है
वो क़ुदरत के नमूने क्या हुए जो उस में पहले थे
निगाह-ए-यार मिल जाती तो हम शागिर्द हो जाते
मोहब्बत कर के लाखों रंज झेले बेकली पाई
दूर क्यूँ जाऊँ यहीं जल्वा-नुमा बैठा है
वक़्त आराम का नहीं मिलता
इक नक़्श-ए-ख़याल रू-ब-रू है