निगाह-ए-यार मिल जाती तो हम शागिर्द हो जाते
ज़रा ये सीख लेते दिल के ले लेने का ढब क्या है
Mohsin Naqvi
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रंज-ए-ग़ुर्बत में देख कर मुझ को
धोके से बुला कर जो मिला था तो वो मुझ से
ग़ुरूर-ए-उल्फ़त की तर्ज़-ए-नाज़िश अजब करिश्मे दिखा रही है
अदू को छोड़ दो फिर जान भी माँगो तो हाज़िर है
पूछा कि वज्ह-ए-ज़िंदगी बोले कि दिलदारी मिरी
तेरी रहमत का नाम सुन सुन कर
किसी के कम हैं किसी के बहुत मगर ज़ाहिद
एक हम हैं कि जहाँ जाएँ बुरे कहलाएँ
पर्दे वाले भी कहीं आते हैं घर से बाहर
रूह देती रही तर्ग़ीब-ए-तअ'ल्ली बरसों
वक़्त दो मुझ पर कठिन गुज़रे हैं सारी उम्र में