रूह देती रही तर्ग़ीब-ए-तअ'ल्ली बरसों
हम मगर तेरी गली छोड़ के ऊपर न गए
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रवाँ रहता है किस की मौज में दिन रात तू पानी
तरीक़ याद है पहले से दिल लगाने का
चूकी नज़र जो ज़ाहिद-ए-ख़ाना-ख़राब की
दिल काम का नहीं तो न लो जान नज़्र है
मोहब्बत में किसी ने सर पटकने का सबब पूछा
आँखें न चुराओ दिल में रह कर
वो पास आने न पाए कि आई मौत की नींद
उस का भी एक वक़्त है आने दो मौत को
वहाँ जा कर किए हैं मैं ने सज्दे अपनी हस्ती को
उस से कह दो कि वो जफ़ा न करे
हमारे मय-कदे में ख़ैर से हर चीज़ रहती है
मिरे गुनाह ज़ियादा हैं या तिरी रहमत