आँखें न चुराओ दिल में रह कर
चोरी न करो ख़ुदा के घर में
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वक़्त आराम का नहीं मिलता
बुत-ख़ाने में क्या याद-ए-इलाही नहीं मुमकिन
सूरत तो एक ही थी दो घर हुए तो क्या है
मिरे दल ने झटके उठाए हैं कितने ये तुम अपनी ज़ुल्फ़ों के बालों से पूछो
असीर-ए-पंजा-ए-अहद-ए-शबाब कर के मुझे
बुरा हूँ मैं जो किसी की बुराइयों में नहीं
काबे में हम ने जा के कुछ और हाल देखा
ईसा कभी न जाते लेकिन तुम्हारे ग़म में
लड़ाई है तो अच्छा रात-भर यूँ ही बसर कर लो
दिल काम का नहीं तो न लो जान नज़्र है
किसी के तीर को छाती से हम लगाए रहे
ख़ूब इस दिल पे तिरी आँख ने डोरे डाले