सदमा बुत-ए-काफ़िर की मोहब्बत का न पूछो
ये चोट तो काबे ही के पत्थर से लगी है
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ग़ुरूर-ए-उल्फ़त की तर्ज़-ए-नाज़िश अजब करिश्मे दिखा रही है
बुत-कदे में तो तुझे देख लिया करता था
सब शरीक-ए-सदमा-ओ-आज़ार कुछ यूँही से हैं
मुख़ालिफ़ है सबा-ए-नामा-बर कुछ और कहती है
बैठे हुए हैं हम ख़ुद आँखों में धूल डाले
कहीं जो बुलबुल ने देख पाया तो मेरी उस की नहीं बनेगी
तू मुझे किस के बनाने को मिटा बैठा है
बुतों में नूर-ए-ज़ात-ए-किब्रिया मालूम होता है
उस से कह दो कि वो जफ़ा न करे
अदू को छोड़ दो फिर जान भी माँगो तो हाज़िर है
हस्ती-ए-ग़ैर का सज्दा है मोहब्बत में गुनाह
साक़ी वो ख़ास तौर की ता'लीम दे मुझे