वो कहते हैं कि क्यूँ जी जिस को तुम चाहो वो क्यूँ अच्छा
वो अच्छा क्यूँ है और हम जिस को चाहें वो बुरा क्यूँ है
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तेरी रंगत बहार से निकली
जफ़ा से वफ़ा मुस्तरद हो गई
वो क़ुदरत के नमूने क्या हुए जो उस में पहले थे
बाक़ी की मोहब्बत में दिल साफ़ हुआ इतना
ग़ुरूर-ए-उल्फ़त की तर्ज़-ए-नाज़िश अजब करिश्मे दिखा रही है
तुम क्यूँ शब-ए-जुदाई पर्दे में छुप गए हो
आरज़ू दिल में बनाए हुए घर है भी तो क्या
इक नक़्श-ए-ख़याल रू-ब-रू है
बुरा हूँ मैं जो किसी की बुराइयों में नहीं
हसीनों पर नहीं मरता मैं इस हसरत में मरता हूँ
साक़ी तिरी नज़र तो क़यामत सी ढा गई
पर्दा-ए-दर्द में आराम बटा करते हैं