ऐ हिना रंग-ए-मोहब्बत तो है मुझ में भी निहाँ
तेरे धोके में कोई पीस न डाले मुझ को
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जिए जाते हैं पस्ती में तिरे सारे जहाँ वाले
मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा मुझे सुन के कोई करेगा क्या
तसव्वुर ख़ाना-आबादी करेगा
वो पास आने न पाए कि आई मौत की नींद
रंज-ए-ग़ुर्बत में देख कर मुझ को
ख़िदमत-ए-गश्त बगूलों को तो दी सहरा में
नहीं हूँ मैं तो तिरी बंदगी के क्या मा'नी
वो कहते हैं ये सारी बेवफ़ाई है मोहब्बत की
जगाने चुटकियाँ लेने सताने कौन आता है
जितने बुत हैं मैं सब पे मरता हूँ
हज़ारों हुस्न वाले इस ज़मीं में दफ़न हैं 'मुज़्तर'
क़िबला बन जाए जहाँ तू कोई पत्थर रख दे