जितने बुत हैं मैं सब पे मरता हूँ
मेरा ईमान एक हो तो कहूँ
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साक़ी ने लगी दिल की इस तरह बुझा दी थी
हम वफ़ा करते हैं हम पर जौर कोई क्यूँ करे
ऐ हिना रंग-ए-मोहब्बत तो है मुझ में भी निहाँ
जुनूँ के जोश में इंसान रुस्वा हो ही जाता है
मेरा दिल-ए-'मुज़्तर' बुत-ए-काफ़िर से लगा है
वो पास आने न पाए कि आई मौत की नींद
रह के पर्दे में रुख़-ए-पुर-नूर की बातें न कर
हाल ज़ाहिद जो मय-ए-नाब का पूछे तो कहूँ
मोहब्बत में किसी ने सर पटकने का सबब पूछा
ग़ुरूर-ए-उल्फ़त की तर्ज़-ए-नाज़िश अजब करिश्मे दिखा रही है
उस से कह दो कि वो जफ़ा न करे
जब कहा मैं हूँ तिरे इश्क़ में बदनाम कि तू