क़िबला बन जाए जहाँ तू कोई पत्थर रख दे
दस्त-ए-इस्लाम वहीं दीन का मिम्बर रख दे
Parveen Shakir
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Habib Jalib
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यही सूरत वहाँ थी बे-ज़रूरत बुत-कदा छोड़ा
बिछड़ना भी तुम्हारा जीते-जी की मौत है गोया
उम्र काटी बुतों की आड़ों में
वो पास आने न पाए कि आई मौत की नींद
हज़ारों हुस्न वाले इस ज़मीं में दफ़न हैं 'मुज़्तर'
आप क्यूँ बैठे हैं ग़ुस्से में मिरी जान भरे
हम उम्र के साथ हैं सफ़र में
बैठे हुए हैं हम ख़ुद आँखों में धूल डाले
ख़ाल-ओ-आरिज़ का तसव्वुर है हमारे दिल में
पूछा कि वज्ह-ए-ज़िंदगी बोले कि दिलदारी मिरी
आशिक़ों की रूह को ता'लीम-ए-वहदत के लिए
मोहब्बत बुत-कदे में चल के उस का फ़ैसला कर दे