यही सूरत वहाँ थी बे-ज़रूरत बुत-कदा छोड़ा
ख़ुदा के घर में रक्खा क्या है नाहक़ इतनी दूर आए
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मकतब की आशिक़ी भी तारीख़-ए-ज़िंदगी थी
तुम्हें चाहूँ तुम्हारे चाहने वालों को भी चाहूँ
जान ये कह के बुत-ए-होश-रुबा ने ले ली
इस बात का मलाल नहीं है कि दिल गया
हिज्र में हो गया विसाल का क्या
न बुलवाया न आए रोज़ वा'दा कर के दिन काटे
तरीक़ याद है पहले से दिल लगाने का
चूकी नज़र जो ज़ाहिद-ए-ख़ाना-ख़राब की
कुछ न पूछो कि क्यूँ गया काबे
किसी का जल्वा-ए-रंगीं ये कहता है इन्हें पूजो
ऐश के रंग मलालों से दबे जाते हैं