यहाँ से जब गई थी तब असर पर ख़ार खाए थी
वहाँ से फूल बरसाती हुई पलटी दुआ मेरी
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मकतब की आशिक़ी भी तारीख़-ए-ज़िंदगी थी
दिल ले के हसीनों ने ये दस्तूर निकाला
मिरे दल ने झटके उठाए हैं कितने ये तुम अपनी ज़ुल्फ़ों के बालों से पूछो
हाल उस ने हमारा पूछा है
पूछा कि वज्ह-ए-ज़िंदगी बोले कि दिलदारी मिरी
धोके से बुला कर जो मिला था तो वो मुझ से
दम-ए-ख़्वाब-ए-राहत बुलाया उन्हों ने तो दर्द-ए-निहाँ की कहानी कहूँगा
ऐ इश्क़ कहीं ले चल ये दैर-ओ-हरम छूटें
ख़िज़र भी आप पर आशिक़ हुए हैं
वो कहते हैं कि क्यूँ जी जिस को तुम चाहो वो क्यूँ अच्छा
तड़प ही तड़प रह गई सिर्फ़ बाक़ी
यही सूरत वहाँ थी बे-ज़रूरत बुत-कदा छोड़ा