ख़िज़र भी आप पर आशिक़ हुए हैं
क़ज़ा आई हयात-ए-जाविदाँ की
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अदू को छोड़ दो फिर जान भी माँगो तो हाज़िर है
आप क्यूँ बैठे हैं ग़ुस्से में मिरी जान भरे
रवाँ रहता है किस की मौज में दिन रात तू पानी
ऐ बुतो रंज के साथी हो न आराम के तुम
दिल उन को मुफ़्त देने में दुश्मन को रश्क क्यूँ
सब शरीक-ए-सदमा-ओ-आज़ार कुछ यूँही से हैं
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
पड़ गए ज़ुल्फ़ों के फंदे और भी
सूरत तो एक ही थी दो घर हुए तो क्या है
किसी का जल्वा-ए-रंगीं ये कहता है इन्हें पूजो
इसी को पी के होती है शिफ़ा बीमार-ए-उल्फ़त को
हाल-ए-दिल अग़्यार से कहना पड़ा