दिल उन को मुफ़्त देने में दुश्मन को रश्क क्यूँ
हम अपना माल देते हैं इस में किसी का क्या
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बुत-ख़ाने में क्या याद-ए-इलाही नहीं मुमकिन
हज़ारों हुस्न वाले इस ज़मीं में दफ़न हैं 'मुज़्तर'
जब कहा मैं ने कि मर मर के बचे हिज्र में हम
मोहब्बत में किसी ने सर पटकने का सबब पूछा
क़ासिद ने ख़बर आमद-ए-दिलबर की उड़ा दी
दम निकल जाएगा रुख़्सत का अभी नाम न लो
जो पूछा मुँह दिखाने आप कब चिलमन से निकलेंगे
ऐ हिना रंग-ए-मोहब्बत तो है मुझ में भी निहाँ
आप से मुझ को मोहब्बत जो नहीं है न सही
उम्र काटी बुतों की आड़ों में
आप क्यूँ बैठे हैं ग़ुस्से में मिरी जान भरे
सुनोगे हाल जो मेरा तो दाद क्या दोगे