ऐ बुतो रंज के साथी हो न आराम के तुम
काम ही जब नहीं आते हो तो किस काम के तुम
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उठते जोबन पे खिल पड़े गेसू
यूँ कहीं डूब के मर जाऊँ तो अच्छा है मगर
ऐ इश्क़ कहीं ले चल ये दैर-ओ-हरम छूटें
नहीं हूँ मैं तो तिरी बंदगी के क्या मा'नी
मोहब्बत इब्तिदा में कुछ नहीं मा'लूम होती है
उन को आती थी नींद और मुझ को
तुम्हारी जल्वा-गाह-ए-नाज़ में अंधेर ही कब था
तेरी रहमत का नाम सुन सुन कर
किसी ने न देखा तिरे हुस्न को
उम्र काटी बुतों की आड़ों में
साक़ी मिरा खिंचा था तो मैं ने मना लिया
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ