ख़िदमत-ए-गश्त बगूलों को तो दी सहरा में
मैं भी बर्बाद हूँ मुझ को भी कोई काम बता
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क्या कहूँ हसरत-ए-दीदार ने क्या क्या खींचा
इक सदमा-ए-मोहब्बत इक सदमा-ए-जुदाई
निछावर बुत-कदे पर दिल करूँ का'बा तो कोसों है
नहीं मंज़ूर जब मिलना तो वा'दे की ज़रूरत क्या
असीर-ए-पंजा-ए-अहद-ए-शबाब कर के मुझे
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
मकतब की आशिक़ी भी तारीख़-ए-ज़िंदगी थी
उड़ा कर ख़ाक हम काबे जो पहुँचे
आओ तो मेरे आइना-ए-दिल के सामने
साक़ी ने लगी दिल की इस तरह बुझा दी थी
हसरतों को कोई कहाँ रक्खे
एक हम हैं कि जहाँ जाएँ बुरे कहलाएँ