ख़त फाड़ के फेंका है तो लिक्खा भी मिटा दो
काग़ज़ पे उतरता है बहुत ताव तुम्हारा
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मैं मसीहा उसे समझता हूँ
ख़ुदा भी जब न हो मालूम तब जानो मिटी हस्ती
ये तो समझा मैं ख़ुदा को कि ख़ुदा है लेकिन
अहबाब-ओ-अक़ारिब के बरताव कोई देखे
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
किसी के तीर को छाती से हम लगाए रहे
नहीं मंज़ूर जब मिलना तो वा'दे की ज़रूरत क्या
तसव्वुर ख़ाना-आबादी करेगा
उम्र काटी बुतों की आड़ों में
वक़्त-ए-आख़िर क़ज़ा से बिगड़ेगी
तुम अगर चाहो तो मिट्टी से अभी पैदा हों फूल
दिल को मैं अपने पास क्यूँ रक्खूँ