ख़ाल-ओ-आरिज़ का तसव्वुर है हमारे दिल में
एक हिन्दू भी है काबे में मुसलमान के साथ
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ईसा से दवा-ए-मरज़-ए-इश्क़ न होगी
ज़ेर-ए-ज़मीं रहूँ कि तह-ए-आसमाँ रहूँ
ऐ ख़ुदा दुनिया पे अब क़ब्ज़ा बुतों का चाहिए
तुम्हें चाहूँ तुम्हारे चाहने वालों को भी चाहूँ
तेरे मूए-ए-मिज़ा खटकते हैं
हाल ज़ाहिद जो मय-ए-नाब का पूछे तो कहूँ
पर्दा-ए-दर्द में आराम बटा करते हैं
उन को आती थी नींद और मुझ को
जान ये कह के बुत-ए-होश-रुबा ने ले ली
इक सदमा-ए-मोहब्बत इक सदमा-ए-जुदाई
इसी को पी के होती है शिफ़ा बीमार-ए-उल्फ़त को
क़ैस ने पर्दा-ए-महमिल को जो देखा तो कहा