ऐ ख़ुदा दुनिया पे अब क़ब्ज़ा बुतों का चाहिए
एक घर तेरे लिए इन सब ने ख़ाली कर दिया
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पर्दे वाले भी कहीं आते हैं घर से बाहर
आशिक़ों की रूह को ता'लीम-ए-वहदत के लिए
अपने अहद-ए-वफ़ा को भूल गए
नज़र के सामने का'बा भी है कलीसा भी
वो मज़ाक़-ए-इश्क़ ही क्या कि जो एक ही तरफ़ हो
बाज़ू पे रख के सर जो वो कल रात सो गया
सुनोगे हाल जो मेरा तो दाद क्या दोगे
तू न आएगा तो हो जाएँगी ख़ुशियाँ सब ख़ाक
ख़िज़र भी आप पर आशिक़ हुए हैं
गवाह-ए-वस्ल-ए-अदू सर झुका के देख न लो
इकट्ठे कर के तेरी दूसरी तस्वीर खींचूँगा
दिल काम का नहीं तो न लो जान नज़्र है