क़ैस ने पर्दा-ए-महमिल को जो देखा तो कहा
ये भी अल्लाह करे मेरा गरेबाँ हो जाए
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देख कर काबे को ख़ाली में ये कह कर आ गया
न रो इतना पराए वास्ते ऐ दीदा-ए-गिर्यां
मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा मुझे सुन के कोई करेगा क्या
इकट्ठे कर के तेरी दूसरी तस्वीर खींचूँगा
मिरा रोना हँसी-ठट्ठा नहीं है
मिरे अरमान मायूसी के पाले पड़ते जाते हैं
किसी के कम हैं किसी के बहुत मगर ज़ाहिद
यही सूरत वहाँ थी बे-ज़रूरत बुत-कदा छोड़ा
कुछ न पूछो कि क्यूँ गया काबे
मदहोश ही रहा मैं जहान-ए-ख़राब में
जब कहा मैं हूँ तिरे इश्क़ में बदनाम कि तू
क़िबला बन जाए जहाँ तू कोई पत्थर रख दे