ज़बाँ क़ासिद की 'मुज़्तर' काट ली जब उन को ख़त भेजा
कि आख़िर आदमी है तज़्किरा शायद कहीं कर दे
Anwar Masood
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वो कहते हैं कि क्यूँ जी जिस को तुम चाहो वो क्यूँ अच्छा
ये पैदा होते ही रोना सरीहन बद-शुगूनी है
उन्हीं लोगों की बदौलत ये हसीं अच्छे हैं
पर्दे वाले भी कहीं आते हैं घर से बाहर
अदू को छोड़ दो फिर जान भी माँगो तो हाज़िर है
अपने दिल को तिरी आँखों पे फ़िदा करता हूँ
आप से मुझ को मोहब्बत जो नहीं है न सही
अपनी महफ़िल में रक़ीबों को बुलाया उस ने
मोहब्बत में किसी ने सर पटकने का सबब पूछा
वो पहली सब वफ़ाएँ क्या हुईं अब ये जफ़ा कैसी
तेरे घर आएँ तो ईमान को किस पर छोड़ें
मुसीबत और लम्बी ज़िंदगानी