अपने दिल को तिरी आँखों पे फ़िदा करता हूँ
आज बीमार पे बीमार की क़ुर्बानी है
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दुआ से कुछ न हुआ इल्तिजा से कुछ न हुआ
मोहब्बत का असर फिर देखना मरने तो दो मुझ को
वो पहली सब वफ़ाएँ क्या हुईं अब ये जफ़ा कैसी
ख़ूब इस दिल पे तिरी आँख ने डोरे डाले
फ़स्ल-ए-गुल भी तरस के काटी है
बाज़ू पे रख के सर जो वो कल रात सो गया
वो कहते हैं ये सारी बेवफ़ाई है मोहब्बत की
आइना देख कर ग़ुरूर फ़ुज़ूल
मोहब्बत को कहते हो बरती भी थी
वक़्त आराम का नहीं मिलता
क्या कहूँ हसरत-ए-दीदार ने क्या क्या खींचा
क़िबला बन जाए जहाँ तू कोई पत्थर रख दे