ख़्वाहिश-ए-दीद पे इंकार से आते हैं मज़े
ऐसे मौक़े पे तो पर्दा भी मज़ा देता है
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आँखें न चुराओ दिल में रह कर
ये तुम बे-वक़्त कैसे आज आ निकले सबब क्या है
कूचा-ए-यार से यारब न उठाना हम को
इक पर्दा-नशीं की आरज़ू है
हम उम्र के साथ हैं सफ़र में
मेरा दिल-ए-'मुज़्तर' बुत-ए-काफ़िर से लगा है
कह दो साक़ी से कि प्यासा न निकाले मुझ को
अपने अहद-ए-वफ़ा को भूल गए
कोई अच्छा नज़र आ जाए तो इक बात भी है
चूकी नज़र जो ज़ाहिद-ए-ख़ाना-ख़राब की
साक़ी तिरी नज़र तो क़यामत सी ढा गई
किसी बुत की अदा ने मार डाला