गए हम दैर से काबे मगर ये कह के फिर आए
कि तेरी शक्ल कुछ अच्छी वहीं मालूम होती है
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तेरी उलझी हुई बातों से मिरा दिल उलझा
जब कहा तीर तिरी आँख ने अक्सर मारा
कहीं जो बुलबुल ने देख पाया तो मेरी उस की नहीं बनेगी
तू मुझे किस के बनाने को मिटा बैठा है
उन का इक पतला सा ख़ंजर उन का इक नाज़ुक सा हाथ
दिल क्या करे जो राज़ मोहब्बत का खुल गया
आशिक़ों की रूह को ता'लीम-ए-वहदत के लिए
आइना देख कर ग़ुरूर फ़ुज़ूल
गवाह-ए-वस्ल-ए-अदू सर झुका के देख न लो
रुख़ किसी का नज़र नहीं आता
मेरी अरमान भरी आँख की तासीर है ये
याद करना ही हम को याद रहा