उन का इक पतला सा ख़ंजर उन का इक नाज़ुक सा हाथ
वो तो ये कहिए मिरी गर्दन ख़ुशी में कट गई
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दम दे दिया है किस रुख़-ए-रौशन की याद में
ईमान साथ जाएगा क्यूँकर ख़ुदा के घर
कोई अच्छा नज़र आ जाए तो इक बात भी है
हाल ज़ाहिद जो मय-ए-नाब का पूछे तो कहूँ
ग़ुरूर-ए-उल्फ़त की तर्ज़-ए-नाज़िश अजब करिश्मे दिखा रही है
जिए जाते हैं पस्ती में तिरे सारे जहाँ वाले
मेरे महबूब तुम हो यार तुम हो दिल-रुबा तुम हो
मिरे दल ने झटके उठाए हैं कितने ये तुम अपनी ज़ुल्फ़ों के बालों से पूछो
मैं तिरी राह-ए-तलब में ब-तमन्ना-ए-विसाल
रह के पर्दे में रुख़-ए-पुर-नूर की बातें न कर
मोहब्बत को कहते हो बरती भी थी
काबे में हम ने जा के कुछ और हाल देखा