जो पूछा दिल हमारा क्यूँ लिया तो नाज़ से बोले
कि थोड़ी बे-क़रारी इस दिल-ए-'मुज़्तर' से लेना है
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न बुलवाया न आए रोज़ वा'दा कर के दिन काटे
जब उन की पतियाँ बिखरें तो समझे मस्लहत उस की
वहाँ जा कर किए हैं मैं ने सज्दे अपनी हस्ती को
वो क़ज़ा के रंज में जान दें कि नमाज़ जिन की क़ज़ा हुई
ग़ुरूर-ए-उल्फ़त की तर्ज़-ए-नाज़िश अजब करिश्मे दिखा रही है
ऐ हिना रंग-ए-मोहब्बत तो है मुझ में भी निहाँ
वक़्त दो मुझ पर कठिन गुज़रे हैं सारी उम्र में
पर्दा-ए-दर्द में आराम बटा करते हैं
आओ तो मेरे आइना-ए-दिल के सामने
मैं मसीहा उसे समझता हूँ
न रो इतना पराए वास्ते ऐ दीदा-ए-गिर्यां
ये तुम बे-वक़्त कैसे आज आ निकले सबब क्या है