जब उन की पतियाँ बिखरें तो समझे मस्लहत उस की
ये गुल पहले समझते थे हवा बे-कार चलती है
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किसी के संग-ए-दर से अपनी मय्यत ले के उट्ठेंगे
बुरा हूँ मैं जो किसी की बुराइयों में नहीं
अपने अहद-ए-वफ़ा को भूल गए
ख़्वाहिश-ए-दीद पे इंकार से आते हैं मज़े
कूचा-ए-यार से यारब न उठाना हम को
दिल उन को मुफ़्त देने में दुश्मन को रश्क क्यूँ
अपनी महफ़िल में रक़ीबों को बुलाया उस ने
जब कहा तीर तिरी आँख ने अक्सर मारा
न उस के दामन से मैं ही उलझा न मेरे दामन से ये ही अटकी
मिरा रोना हँसी-ठट्ठा नहीं है
सूरत तो एक ही थी दो घर हुए तो क्या है
अब इस से बढ़ के क्या नाकामियाँ होंगी मुक़द्दर में