जब मैं ने कहा दिल मिरा पामाल किया क्यूँ
किस नाज़ से बोले कि मोहब्बत की सज़ा थी
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वक़्त-ए-आख़िर क़ज़ा से बिगड़ेगी
इसी को पी के होती है शिफ़ा बीमार-ए-उल्फ़त को
ऐश के रंग मलालों से दबे जाते हैं
वो शायद हम से अब तर्क-ए-तअल्लुक़ करने वाले हैं
तुम्हें चाहूँ तुम्हारे चाहने वालों को भी चाहूँ
आँखें न चुराओ दिल में रह कर
रुख़ किसी का नज़र नहीं आता
निछावर बुत-कदे पर दिल करूँ का'बा तो कोसों है
कह दो साक़ी से कि प्यासा न निकाले मुझ को
दुआ से कुछ न हुआ इल्तिजा से कुछ न हुआ
हमारे मय-कदे में ख़ैर से हर चीज़ रहती है
तुम अगर चाहो तो मिट्टी से अभी पैदा हों फूल