बाम-ओ-दर पर रेंगती परछाइयाँ
मुझ से अब मानूस हैं तन्हाइयाँ
अब समुंदर भी बहुत सतही हुए
अब रहीं इन में न वो गहराइयाँ
ख़ाना-ए-दिल को करो आबाद फिर
मुझ को लौटा दो वही रानाइयाँ
इक थकन सी जिस्म पर तारी हुई
टूट कर गिरने लगीं परछाइयाँ
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गिरते गिरते सँभल रहा हूँ मैं
हम बुज़ुर्गों की आन छोड़ आए
सूरज और महताब बिखरते जाते हैं
ज़ख़्मों को कुरेदा है तो माज़ी निकल आया
गर्द-ओ-ग़ुबार यूँ बढ़ा चेहरा बिखर गया
आँखों से मनाज़िर का तसलसुल नहीं टूटा
तिरी यादों की नक़्क़ाशी खुरच कर फेंक आए हैं
एक ख़ौफ़-ओ-हिरास पानी में