ये शाख़-ए-हुनर अपनी जो गुल-ए-रेज़ रही है

ये शाख़-ए-हुनर अपनी जो गुल-ए-रेज़ रही है

मजरूह तह-ए-ख़ंजर-ए-चंगेज़ रही है

दम लो कि ज़रा क़ाफ़िला-ए-वक़्त भी आ ले

याँ गर्दिश-ए-पैमाना बड़ी तेज़ रही है

इंसानों के दुख-सुख में बराबर रही शामिल

ये तब्अ' जो ज़ाहिर में कम-आमेज़ रही है

उस ग़म्ज़ा-ए-पिन्हाँ की हलावत भी अता हो!

जिस बिन मय-ए-इशरत भी ग़म-अंगेज़ रही है

सद मा'रका-ए-नूर-ओ-ज़िया दिल को है दरपेश

ये मेरी ख़ुदी कितनी ख़ुद-आवेज़ रही है

हर सुब्ह तन-ए-ज़ार को कुचला हुआ पाया

बस रूह-ए-तपिश-दीदा सहर-ख़ेज़ रही है

पीते रहे हम उस को तिरे हुस्न की ख़ातिर

साक़ी! ये तिरी मय कि सम-आमेज़ रही है

वाँ ग़ुंचे खिले और यहाँ ज़ख़्म रिसे हैं

हर मौज-ए-सबा ख़ंजर-ए-ख़ूँ-रेज़ रही है

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In Hindi By Famous Poet Naim Siddiqi. is written by Naim Siddiqi. Complete Poem in Hindi by Naim Siddiqi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.