चराग़-ए-शाम-ए-ग़रीबी था में ज़माने में
किसी ने आ के न ठंडा किया जला के मुझे
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हम यार की ग़ैरों पे नज़र देख रहे हैं
जब किसी को ख़फ़ा करे कोई
ग़ैर के घर हैं वो मेहमान बड़ी मुश्किल है
जहाँ में अभी यूँ तो क्या क्या न होगा
रखना ख़म-ए-गेसू में या दिल को रिहा करना
शब-ए-फ़ुर्क़त क़ज़ा नहीं आती
न मानी उस ने एक भी दिल की
बेताब हैं किसी की निगाहें नक़ाब में
क्या ख़ाक कहूँ मतलब-ए-दिलदार के आगे
जौर-ए-पैहम की इंतिहा भी है
ज़िक्र-ए-ईफ़ा कुछ नहीं वादा ही वादा हम से है
दिल की शामत आई जा कर फँस गया