यूँ किस तरह कटेगा कड़ी धूप का सफ़र
सर पर ख़याल-ए-यार की चादर ही ले चलें
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गिरफ़्ता-दिल हैं बहुत आज तेरे दीवाने
जब ज़रा तेज़ हवा होती है
ये रात तुम्हारी है चमकते रहो तारो
तन्हाई का दुख गहरा था
मुझे ये डर है तिरी आरज़ू न मिट जाए
मुद्दत से कोई आया न गया सुनसान पड़ी है घर की फ़ज़ा
कम-फ़ुर्सती-ए-ख़्वाब-ए-तरब याद रहेगी
तेरी मजबूरियाँ दुरुस्त मगर
'नासिर' क्या कहता फिरता है कुछ न सुनो तो बेहतर है
इन सहमे हुए शहरों की फ़ज़ा कुछ कहती है
ज़रा सी बात सही तेरा याद आ जाना
जब रात गए तिरी याद आई सौ तरह से जी को बहलाया