ये सुब्ह की सफ़ेदियाँ ये दोपहर की ज़र्दियाँ
अब आईने में देखता हूँ मैं कहाँ चला गया
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थोड़ी देर को जी बहला था
शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
न मिला कर उदास लोगों से
मुमकिन नहीं मता-ए-सुख़न मुझ से छीन ले
तेरी ज़ुल्फ़ों के बिखरने का सबब है कोई
ओ मेरे मसरूफ़ ख़ुदा
आँच आती है तिरे जिस्म की उर्यानी से
कुछ यादगार-ए-शहर-ए-सितमगर ही ले चलें
कौन उस राह से गुज़रता है
शबनम-आलूद पलक याद आई
मुद्दत से कोई आया न गया सुनसान पड़ी है घर की फ़ज़ा
दयार-ए-दिल की रात में चराग़ सा जला गया