धूम कर रक्खी थी कल रिंदों ने बज़्म-ए-वा'ज़ में
पगड़ी ग़ाएब थी जनाब-ए-शैख़ की गुल था चराग़
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कौन इस रंग से जामे से हुआ था बाहर
मिले मुराद हमारी मगर मिले भी कहीं
शैख़ जज़ा-ए-कार-ए-ख़ैर जो बता रहा है आज
मजनूँ से जो नफ़रत है दीवानी है तू लैला
महफ़िल-ए-नाज़ से मैं हो के परेशान उठा
कहने वाले वो सुनने वाला मैं
मिल गए तुम हाथ उठा कर मुझ को सब कुछ मिल गया
क्यूँ ख़याल-ए-रंज-ओ-राहत से न हों बेगाना हम
आ गई दिल की लगी बढ़ के रग-ए-जाँ के क़रीब
मिरे ग़म की उन्हें किस ने ख़बर की
ख़िरद-आमोज़ हस्ती है मगर अब क्या कहूँ वो भी
क्या इरादे हैं वहशत-ए-दिल के