हमें कम-बख़्त एहसास-ए-ख़ुदी उस दर पे ले बैठा
हम उठ जाते तो वो पर्दा भी उठ जाता जो हाइल था
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बुतों के साथ ली दी सी जो याद-अल्लाह बाक़ी है
सर्द हो जाती है फ़िक्र-ए-जाह-ए-दुनिया जिस के बअ'द
ख़ुद हो के कुछ ख़ुदा से भी मर्द-ए-ख़ुदा न माँग
पाबंद-ए-दैर हो के भी भूले नहीं हैं घर
पहुँचाएगा नहीं तू ठिकाने लगाएगा
खा गई अहल-ए-हवस की वज़्अ अहल-ए-इश्क़ को
भर पाए जान-ए-ज़ार तिरी दोस्ती से हम
कर दिया दहर को अंधेर का मस्कन कैसा
नाज़ उधर दिल को उड़ा लेने की घातों में रहा
क्या इरादे हैं वहशत-ए-दिल के
ढूँडती है इज़्तिराब-ए-शौक़ की दुनिया मुझे
हँस के नहीं तो रो के भी उम्र गुज़र ही जाएगी