पाबंद-ए-दैर हो के भी भूले नहीं हैं घर
मस्जिद में जा निकलते हैं चोरी-छुपी से हम
Jaun Eliya
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ग़म-ओ-अंदोह का लश्कर भी चला आता है
अव्वल अव्वल ख़ूब दौड़ी कश्ती-ए-अहल-ए-हवस
बंदगी कीजिए मगर किस की
खाइए ये ज़हर कब तक खाए जाती है ये ज़ीस्त
जुनूँ तलाश में है पा न ले बहार मुझे
वहाँ से ले गई नाकाम बदबख़्तों को ख़ुद-कामी
मजनूँ से जो नफ़रत है दीवानी है तू लैला
किस को मेहरबाँ कहिए कौन मेहरबाँ अपना
है मरज़ तो जो कुछ है थी दवा तो जैसी थी
आया तो दिल-ए-वहशी दर-बंद-ए-नियाज़ आया
रिंदान-ए-बादा-नोश की छागल उठा तो ला