अव्वल अव्वल ख़ूब दौड़ी कश्ती-ए-अहल-ए-हवस
आख़िर आख़िर डूब मरने का मक़ाम आ ही गया
Parveen Shakir
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Faiz Ahmad Faiz
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धूम कर रक्खी थी कल रिंदों ने बज़्म-ए-वा'ज़ में
जुरअत-अफ़ज़ा-ए-सवाल ऐ ज़हे अंदाज़-ए-जवाब
बुतों के साथ ली दी सी जो याद-अल्लाह बाक़ी है
तुम्हारी बात का इतना है ए'तिबार हमें
वहाँ से ले गई नाकाम बदबख़्तों को ख़ुद-कामी
तो आख़िर साज़-ए-हस्ती क्यूँ तरब-आहंग-ए-महफ़िल था
नहीं रुकता तो जा ख़ुदा-हाफ़िज़
उसे पा-ब-गिल न रखता जो ख़याल-ए-तीरा-बख़्ती
क्या इरादे हैं वहशत-ए-दिल के
चाल और है दुनिया की हमारा है चलन और
रस्म-ए-तलब में क्या है समझ कर उठा क़दम
खाइए ये ज़हर कब तक खाए जाती है ये ज़ीस्त