चाल और है दुनिया की हमारा है चलन और
वो साख़्त है कुछ और ये बे-साख़्ता-पन और
Rahat Indori
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लो जुनूँ की सवारी आ पहुँची
सर्द हो जाती है फ़िक्र-ए-जाह-ए-दुनिया जिस के बअ'द
रहते हैं इस तरह से ग़म-ओ-यास आस-पास
तो आख़िर साज़-ए-हस्ती क्यूँ तरब-आहंग-ए-महफ़िल था
किस को मेहरबाँ कहिए कौन मेहरबाँ अपना
खाइए ये ज़हर कब तक खाए जाती है ये ज़ीस्त
छोड़ भी देते मोहतसिब हम तो ये शग़्ल-ए-मय-कशी
पहुँचाएगा नहीं तू ठिकाने लगाएगा
दयार-ए-होश की पहले जुनूँ ख़बर लेना
हिचकियों पर हो रहा है ज़िंदगी का राग ख़त्म
ऐ शब-ए-हिज्राँ ज़ियादा पाँव फैलाती है क्यूँ
अब गर्दिश-ए-दौराँ को ले आते हैं क़ाबू में