जुरअत-अफ़ज़ा-ए-सवाल ऐ ज़हे अंदाज़-ए-जवाब
आती जाती है अब इस बुत की नहीं हाँ के क़रीब
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देखता रहता हूँ अक्सर शाम-ए-क़ुदरत देख कर
पाबंद-ए-दैर हो के भी भूले नहीं हैं घर
ख़िरद-आमोज़ हस्ती है मगर अब क्या कहूँ वो भी
बे-ख़ुद-ए-शौक़ हूँ आता है ख़ुदा याद मुझे
तुम्हारी बात का इतना है ए'तिबार हमें
क्यूँ ख़याल-ए-रंज-ओ-राहत से न हों बेगाना हम
ऐ ज़िंदगी जुनूँ न सही बे-ख़ुदी सही
हमें जो याद है हम तो उसी से काम लेते हैं
सब कुछ मुझे मुश्किल है न पूछो मिरी मुश्किल
तुम अगर जाओ तो वहशत मिरी खा जाए मुझे
छोड़ भी देते मोहतसिब हम तो ये शग़्ल-ए-मय-कशी
दूसरा ऐसा कहाँ ऐ दश्त ख़ल्वत का मक़ाम