नज़र आता नहीं अब घर में वो भी उफ़ रे तन्हाई
इक आईने में पहले आदमी था मेरी सूरत का
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ज़िक्र-ए-शराब-ए-नाब पे वाइ'ज़ उखड़ गया
ख़िरद-आमोज़ हस्ती है मगर अब क्या कहूँ वो भी
दूसरा ऐसा कहाँ ऐ दश्त ख़ल्वत का मक़ाम
हो गई आवारागर्दी बे-घरी की पर्दा-दार
रस्म-ए-तलब में क्या है समझ कर उठा क़दम
आलम-ए-कौन-ओ-मकाँ नाम है वीराने का
अब कहाँ गुफ़्तुगू मोहब्बत की
रह-नवरदान-ए-वफ़ा मंज़िल पे पहुँचे इस तरह
तो आख़िर साज़-ए-हस्ती क्यूँ तरब-आहंग-ए-महफ़िल था
रिया-कारी के सज्दे शैख़ ले बैठेंगे मस्जिद को
रिंदान-ए-बादा-नोश की छागल उठा तो ला
क्यूँ ख़याल-ए-रंज-ओ-राहत से न हों बेगाना हम