रिया-कारी के सज्दे शैख़ ले बैठेंगे मस्जिद को
किसी दिन देखना हो कर रहेगी सर-निगूँ वो भी
Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
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ऐसे बोहतान लगाए कि ख़ुदा याद आया
आलम-ए-कौन-ओ-मकाँ नाम है वीराने का
जो बला आती है आती है बला की 'नातिक़'
मजनूँ से जो नफ़रत है दीवानी है तू लैला
मिरे ग़म की उन्हें किस ने ख़बर की
नहीं रुकता तो जा ख़ुदा-हाफ़िज़
आज मय-ख़ाने में बरकत ही सही
मेरे सीने में नहीं है तो ये समझो कि न था
तुम ऐसे अच्छे कि अच्छे नहीं किसी के साथ
तरीक़-ए-दिलबरी काफ़ी नहीं हर-दिल-अज़ीज़ी को
किस को मेहरबाँ कहिए कौन मेहरबाँ अपना