तरीक़-ए-दिलबरी काफ़ी नहीं हर-दिल-अज़ीज़ी को
सलीक़ा बंदा-परवर चाहिए बंदा-नवाज़ी का
Faiz Ahmad Faiz
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अहल-ए-जुनूँ पे ज़ुल्म है पाबंदी-ए-रुसूम
अब गर्दिश-ए-दौराँ को ले आते हैं क़ाबू में
गुल शोर कहाँ का है सुन तो सही ओ ज़ालिम
कश्ती है घाट पर तू चले क्यूँ न दूर आज
आ उम्र-ए-रफ़्ता हश्र के दम-ख़म भी देख लें
हमें जो याद है हम तो उसी से काम लेते हैं
मुझ से नाराज़ हैं जो लोग वो ख़ुश हैं उन से
ऐ दिल-ए-शिकवा-संज क्या गुज़री
हम पाँव भी पड़ते हैं तो अल्लाह-रे नख़वत
उसे पा-ब-गिल न रखता जो ख़याल-ए-तीरा-बख़्ती
हाथ रहते हैं कई दिन से गरेबाँ के क़रीब