तो हमें कहता है दीवाना को दीवाने सही
पंद-गो आख़िर तुझे अब क्या कहें दीवाना हम
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खाइए ये ज़हर कब तक खाए जाती है ये ज़ीस्त
कहने वाले वो सुनने वाला मैं
वहाँ से ले गई नाकाम बदबख़्तों को ख़ुद-कामी
मुद्दतें हो गई होता नहीं फेरा तेरा
सब को ये शिकायत है कि हँसता नहीं 'नातिक़'
क्या करूँ ऐ दिल-ए-मायूस ज़रा ये तो बता
बादा-मस्ती आ करामत हो के मयख़ाने में आ
ढूँढती है इज़्तिराब-ए-शौक़ की दुनिया मुझे
महफ़िल-ए-नाज़ से मैं हो के परेशान उठा
गुल शोर कहाँ का है सुन तो सही ओ ज़ालिम
इज़्तिराब-ए-दिल में आ जा कर दवाम आ ही गया
इक हर्फ़-ए-शिकायत पर क्यूँ रूठ के जाते हो